HP History Part 2

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हिमाचल प्रदेश का प्राचीन इतिहास

(Ancient History)




प्रागैतिहासिक (Pre-historic) हिमाचल-को कहते हैं, जिसमें लिपि तो थी, किंतु अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, जैसे-हड़प्पा

काला


 पुरापाषाणकालीन स्रोत-1951 में के नमूने प्राप्त किए हैं। इनमें चापर, हस्त कुठारें और वेदनी प्रमुख है। डॉ. जी.सी. महापात्रा ने भी सिरसा नदी घाटी और काँगड़ा में उत्तर पाषाण काल (30 लाख-4 लाख वर्ष पूर्व) के पत्थर के बने औजारों के अवशेष प्राप्त किए हैं। सिरमौर की मार्कंडा नदी के सुकेती क्षेत्र में 1974 में इस अवधि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।


 मध्यपाषाण एवं नवपाषाणकालीन स्रोत-

भारत में इसनिहंग में नवपाषाण युग के प्रमाण मिले हैं सरस्वती-यमुना नदियों को तलहटी में भूरे रंग के चित्र मिट्टी के बर्तनों में बने मिले हैं।


आद्यऐतिहासिक (सिंधु सभ्यता के समय) हिमाचल के निवासी-


कोल-कोल हि.प्र. के मूल कोल जाति का हि.प्र. में बसने का पता कुमाँऊ की चन्देश्वर घाटी की चट्टानों से मिलता है।


किरात-किरात (मंगोल) कोल निवास का वर्णन मिलता है। किरातों को पहाड़ी तलहटी से ऊँचे पर्वतों की तरफ भगाने वाले खश थे। मनु ने भी किरातों का वर्णन किया है। कालिदास के रघुवंश में किन्नरों का उल्लेख मिलता है।


नाग-इस जाति के लोग हिमाचल की विवाह किया था। वासुकी नाग की पूजा चम्बा, कुल्लू आदि में की जाती है। तक्षक नाग ने हिमालय में नाग राज्य स्थापित किया था।


खस-आर्यों की तीसरी शाखा जो मध्य जाति' के लोग जो नाग जाति के वंशज समझे जाते हैं, के एक परिवार के व्यक्ति की बलि इस उत्सव में दी जाती है। खशों द्वारा निरमण्ड में मनाई जाने वाली 'बूढी दिवाली' भी इनकी यहाँ के आदिम जातियों पर विजय का प्रतीक है। विष्णु पुराण में भी खशों का वर्णन आया है। इन्हीं खश लोगों के सरदारों ने बाद में छोटे-छोटे राज्य संघ बनाए जिन्हें 'मबाणा' कह गया। खशों ने भी प्राचीन जातियों की भाँति बहुपति प्रथा को अपना लिया। पाण्डवों ने भी वनवास के दौरान बहुपति प्रथा खशों से ली थी।


प्राचीन देवता


 शिव-हिमाचल के आदि निवासियों प्राचीनतम धर्म शैव धर्म है। पशुपति देवता की पूजा के प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता में मिले हैं।


शक्ति-हि.प्र. में शिव उपासना के ,हाटेश्वरी देवी हाटकोटी और भीमाकाली सराहन हि.प्र. में शक्ति उपासना के प्राचीन प्रमाण हैं।


नाग देवता-नाग देवता के अनेक मंदिरों एवं पूजा स्थलों के प्राचीन प्रमाण हि.प्र. में प्राप्त हुए हैं।

 

आर्य और हिमाचल-


आर्यों- की एक शाखा ने मध्य ओर बढ़े। जहाँ पूरी तरह बसने में इन्हें 400 वर्ष का समय लगा। सप्त सिंधु (पंजाब) से शिवालिक की ओर बढ़ने पर वैदिक आर्यों का सामना यहाँ के प्राचीन निवासियों कोल, किरात और नाग जाति के लोगों से हुआ।


शाम्बर- दिवोदास युद्ध-दस्यु राजा "और नागों को निचली घाटियों से खदेड़ कर दुर्गम पहाड़ियों की ओर जाने पर बाध्य कर दिया। ऋषि भारद्वाज आर्य राजा दिवोदास के मुख्य सलाहकार थे।


खश और आर्य- खशों को भी आर्यों ने दुर्गम पहाड़ियों की ओर भगा दिया जो वहीं बस गए, उन खशों को आर्यों ने अपने में विलीन कर लिया या दास बना लिया।


 वैदिक काल-

वैदिक आर्य- वैदिक आर्यों के शक्तिशाली राजा 'ययाति' ने सरस्वती नदी के किनारे अपने राज्य की नीव रखी। उसके बाद उसका पुत्र 'पुरु' इस राज्य का शासक बना।


दशराग युद्ध-ऋग्वेद के अनुसार सुदास की सेना ने दस राजाओं (पुरु राज्य) की सेना को पराजित किया। इसके बाद सुदास ऋग्वैदिक काल का सबसे शक्तिशाली राजा बना। यह युद्ध रावी नदी के किनारे हुआ था।


वैदिक ऋषि-मण्डी को माण्डव्य ऋषि से, घाटी में मनीकरण के पास स्थित वशिष्ठ कुण्ड गर्म पानी के चश्मे को वैदिक ऋषि वशिष्ठ से जोड़ा जाता है।


जमदग्नि ऋषि-जमदग्नि ऋषि को परशुराम का मंदिर रेणुका झील के पास स्थित है। अगस्त्य और गौतम ऋषियों ने भी रेणुका के आस-पास अपने-अपने आश्रम बनाए और बाद में अन्य स्थानों पर निवास करने चले गए।


ऋषि परशुराम-वैदिक आर्य राजा इनकार कर दिया। इस पर क्रोधित होकर उसने जमदग्नि ऋषि के आश्रम को नष्ट कर दिया और उनकी गायों को लूटकर ले गया। परशुराम ने स्थानीय राजाओं तथा जातियों का संघ बनाकर सहस्रअर्जुन पर आक्रमण कर उसका वध कर दिया। सहस्रअर्जुन के पुत्रों ने जमदग्नि ऋषि की हत्या कर दी। इससे परशुराम भड़क गए और सभी क्षत्रियों पर आक्रमण करने लगे।


महाभारत काल और हि.प्र. के चार प्राचीन जनपद-

ऋग्वेद में हिमाचल को 'हिमवन्त' कहा गया है। रियासत ने पाण्डवों की अधीनता स्वीकार की थी। महाभारत में 4 जनपदों त्रिगर्त, औदुम्बर, कुलिन्द और कुलूत का विवरण मिलता है।


औदुम्बर-महाभारत के अनुसार औदुम्बर बहुलता के कारण यह जनपद औदुम्बर कहलाता है। ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में औदुम्बरों के सिक्कों पर 'महादेवसा' शब्द मिला है जो 'महादेव' का प्रतीक है। सिक्कों पर त्रिशूल भी खुदा है। औदुम्बरों ने तावे और चांदी के सिक्के चलाए। औदुम्बर शिवभक्त और भेड़पालक थे जिससे चम्बा की गद्दी जनजाति से इनका संबंध रहा होगा।


त्रिगर्त-त्रिगर्त जनपद की स्थापना पड़ोसी राज्य था। त्रिगर्त, रावी. व्यास और सतलुज नदियों के बीच का भाग था। सुशान चन्द्र ने काँगड़ा किला बनाया और नगरकोट को अपनी राजधानी बनाया। कनिष्क ने 6 राज्य समूहों को त्रिगर्त का हिस्सा बताया था। कौरव शक्ति, जलमनी, का उल्लेख पाणिनी के अष्टाध्यायी, कल्हण के राजतरंगिनी, विष्णु पुराण, बृहत्संहिता तथा महाभारत के द्रोणपर्व में भी हुआ है।


कुल्लूत-कुल्लूत राज्य व्यास नदी के ऊपर का विवरण पाणिनि की 'कत्रेयादी गंगा' में मिलता है। कुल्लू घाटी में राजा विर्यास के नाम से 100 ई. का सबसे पुराना सिक्का मिलता है। इस पर 'प्राकृत' और 'खरोष्ठी' भाषा में लिखा गया है। कुल्लूत रियासत की स्थापना 'प्रयाग' (इलाहाबाद) से आए 'विहंगमणि पाल' ने की थी।


कुलिंद-महाभारत के अनुसार कुलिंद पर जाता है। कुलिंद के चाँदी के सिक्के पर राजा 'अमोघभूति' का नाम खुदा हुआ मिला है। यमुना नदी का पौराणिक नाम 'कालिंदी' है और इसके साथ साथ पर पड़ने वाले क्षेत्र को कुलिंद कहा गया है। इस क्षेत्र में उगने वाले 'कुलिंद' (बहेड़ा) के पेड़ों की बहुतायत के कारण भी इस जनपद का नाम कुलिन्द पड़ा होगा। चतरेश्वर महात्मन' वाली मुद्रा भी प्राप्त हुई है। कुलिंदों की 'गणतंत्रीय शासन प्रणाली' थी। कुलिन्दों ने पंजाब के योद्धाओं और अर्जुनायन के साथ मिलकर कुषाणों को भगाने में सफलता पाई थी।


मौर्यकाल एवं मौर्योत्तर काल

मौर्यकाल

सिकंदर का आक्रमण-सिकंदर ने 326 BC के सेनापति कोइनास' था। सिकंदर ने व्यास नदी के तट पर अपने भारत अभियान की निशानी के तौर पर बारह स्तूपो का निर्माण करवाया था जो अब नष्ट हो चुके हैं।


चन्द्रगुप्त मौर्य-चन्द्रगुप्त मौर्य ने पहाडी के अनुसार चन्द्रगुप्त ने किरात और खशों को अपनी सेना में भर्ती किया। पर्वतक निश्चय ही त्रिगर्त नरेश रहा होगा। पर्वतीय राजाओं में केवल कुलूत के राजा चित्रवर्मा और कश्मीर के राजा पुष्कराक्ष ने चन्द्रगुप्त का विरोध किया था। चाणक्य की सहायता से 323 ई.पू. में चन्द्रगुप्त नंदवंश का नाश कर सिंहासन पर कहा गया क्योंकि कुलिद राज्य मौर्य साम्राज्य के शीर्ष पर स्थित था। कालांतर में यह शिरमौर्य सिरमौर बन गया।


अशोक-चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक ने मझिम्म और 4 बौद्ध भिक्षुओं को हिमालय में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा। , सहदेव और मुलकदेव ने दिया। हि.प्र. में 242 B.C. में ही बौद्ध धर्म का प्रवेश हो गया था। 210 B.C. के आसपास मौर्य साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ जो 185 BC में शुंग वंश की स्थापना से पूर्ण हो गया।


मौर्योत्तर काल (शुंग, कुषाण वंश-मौर्यों के के 40 सिक्के कालका- कसौली सड़क पर मिले हैं। कनिष्क का एक सिक्का कांगड़ा के कनिहारा में मिला है। पहाड़ी राजा कुषाणों के साथ अपने सिक्के ने मिलकर कुषाणों को सतलुज पार धकेल दिया और अपनी आजादी के प्रतीक के रूप में सिक्के चलाए।


गुप्तकाल 

श्रीगुप्त के पोते चंद्रगुप्त प्रथम ने 319 AD में गुप्त उल्लेख इसमें नहीं मिलता। शायद बह चंद्रगुप्त प्रथम के समय गुप्त साम्राज्य के अधीन आ गया होगा। समुद्रगुप्त ने पहाड़ी जनपदों से अपनी प्रभुता स्वीकार करवाकर उन्हें आन्तरिक आजादी,शक्ति तथा सुरक्षा बनाए रखने की स्वतंत्रता प्रदान की।कुमार गुप्ट के पुत्र स्कन्दगुप्त ने हूणों को पराजित कर गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा को बनाए रखा। स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य का प्रभाव घटने लगा और उसका विघटन हो गया। हूणों का आक्रमण गुप्त साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण था। कालीदास ने कुमारसम्भव और मेघदूत की रचना इसी काल में की थी जिसमें हिमालय का वर्णन मिलता है। गुप्तकाल में पर्वतीय प्रदेशों में हिन्दू धर्म का प्रभाव बढ़ा और अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ।


सामान्य ज्ञान (हिमाचल प्रदेश)




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